हम काले क्यूं है?
सात रंगों के इन्द्रधनुष को देख,
मुस्कुराहट कान से कान तक बंध जाती है,
बारिश और सूरज की किरणों का जादू,
सतरंगी एहसास जगाती है।
कभी सोचा है,
कि अगर बारिश बेइंतेहा हो,
और तपिश ज़रा भी नहीं,
तो ये सतरंगी, जादू क्या दिख पाएगा?
नही!
नहीं दिखेगा ये जादू,
क्यूंकि ये किरणों का जादू ही उन बूंदों में रंग दर्शाता है।
लेकिन इन रंगों से परे, दो ऐसे रंग है। जो किरणों के ना होने पर भीअपना पूर्ण अस्तित्व दिखाते है,
काला और सफेद।
इन दोनों की पहचान भी कमाल की है,
एकदम हमारे मन जैसी,
जो कभी काला है और कभी सफेद है,
सफेद विचारों को सहेज कर रखना पड़ता है,
और काले विचारों से, संसार से पहले हम खुद को बेचैन किए जाते है,
काले शरीर को या ढके लिबास में,
काली नजर को या नजरिए में,
काले साथ में या पहचान में,
काली के रूप में या अंध भगवान में,
काली जीत में या सरल हार में,
काली प्रीत में या फासले से ठहरे प्रेम में,
काले धुएं में या भभकती नारंगी आंच में,
काली सी है इस श्याही का रंग,
आखिर, हम काले क्यूं है ?
क्यों खुद को हम जान नहीं पाते?
पहचान नहीं पाते?
क्यों ऐतबार नहीं है हमें खुद की प्रस्तुति पर?
हस्ती पर?
क्या जानते नहीं है हम कि अक्सर गलत और सही में कोई फर्क नहीं होता?
क्या महसूस होता है हमें, दर्द और बेदर्द का अंतर?
क्या फ़क्र है हमें कि हमें गलतियां करने की आजादी है?
क्या उन गलतियों को ना दोहराने की डगर हमें चलनी आती है?
क्या हम बेख़ौफ़ हो पाते हैं, जो किसी पर आंच आए और हम उसे बचा पाए?
क्या बेसब्र होता है ये दिल किसी मासूम पर हो रही पीड़ा में?
क्या इंसान का धर्म निभाना जानते है हम?
क्या खूबसूरती का रंग पहचानते है हम?
क्या आसमां में बादलों के आकार में भी एक दुनिया , जान पड़ता है हमें?
क्या सूरज और चांद की रौशनी प्रेरित करती है हमें बेहतर कल के लिए?
क्या काले और सफेद के बीच में सात रंगों को अपनाना जान पड़ता है हमें?
अगर हां,
तो फिर, हम काले क्यूं है?
– श्रुति