बरसों पहले जब गर्मी का मौसम आता था ,
बचपन क्या मज़े उठाता था ,
भीग जाती थी मासूम सी सूरत,
उस गीलेपन में खेल खिलाता था,
माँ कहती थी -‘चल आ मदद कर हमारी’,
छत की तपती ज़मीन पे, आलू के पापड़ बिछाता था,
धूप – छाँव खेल सा लगता था,
एक पाँव के खेल के गुलछर्रे उडाता था,
ऑरेंज बार हर रोज़ खाने की चाहत, गर्मी की छुट्टियां दिलचस्प बनाती थी,
बचपन में गर्मी की दोपहर क्या मज़े उड़ाती थी।
नानी के घर जाने का ख्याल अनमोल खुशी लाता था,
दादी से कुछ दिन बिछड़ने का अनुभव, और प्रेम जगाता था,
छोटे से trip के किस्सों पे ठहाके लगाते पूरा साल गुजर जाता था,
छोटी छोटी खुशियों को समेटने का हुनर वो वक़्त ही तो हमे सिखाता था,
स्कूल जाने की चाह नया उत्साह जगाती थी,
बचपन में गर्मी की दोपहर बेमिसाल यादें दे जाती थी।