नारी हूं,
और नर पहले,
सफल हूं अपनी परिभाषा में,
संतुष्ट भी साकार किए हुए सपनों में।
टूटती हूं और चकनाचूर हो जाती हूं,
खुद को समेट लेती हूं, अचंभा हो जाती हूं।
संक्षेप हूं और विस्तार भी,
कश्ती हूं और तूफान भी,
बिखरती हूं और जगह जगह पाई जाती हूं,
संवरती हूं और आंखों में बसाई जाती हूं।
नजर रखती हूं खुद पर,
कि किसी और कि नजर ना लगे जाए,
आज़ाद विचारों से परिपूर्ण हूं,
कई उपलब्ध देशों की प्रमुख नेता है मुझमे।
प्रकृति हूं, पालनहार भी,
जगत का उजियारा और खुदगार भी,
रौशन हूं, अंधकार भी,
मेरी खामोशी, तूफान आने से पहले वाला सन्नाटा ही।
सितम कई होते हैं मुझ पर,
उसका कारण भी मैं,
अख़बार की सुर्खियां बन जाती हूं,
अपने ही तिरस्कार में।
समेट देने का दम रखती हूं,
जो नज़रों से भी वार करे,
देखने में सज्जन है या राक्षस,
समझ आता है मुझे एक सांस में,
मेरा ही अक्स है मेरी नस्लों में,
की मुझे जैसा बनने दोगे,
वैसा ही पाओगे पीढियों में।
सब एक से नहीं होते,
जानती हूं मैं,
राम और रावण का रूप एक ही शख्स हो सकता है,
पहचानती हूं मैं,
कोई सीता , रुक्मणि भी हो सकती है,
समझने में देर हो सकती है।
प्रेम हूं और नफरत का समंदर,
जैसी मुझपे नजर, रौशनी मुझमें से वैसी,
खतरा भी मैं, बचने का आसरा भी,
कर्मो को परख लेती है,
एक अदा ही।
इज्जत हूं मैं, खुमार भी,
हौसला हूं मैं, कमजोरी भी,
बना सकती हूं जो, बिगाड़ नहीं सकती,
दिल अगर लेने का हुनर है मुझमें तो उसकी खैरियत की ज़िम्मेदारी भी।
जीवन हूं मैं, जीवन देने का वरदान भी,
तप्ती धूप, शीतल छांव भी,
पवन सी हूं, बारिश की बूंदे भी,
सुनामी हूं, हाली में आया अंफान भी,
पानी सी हूं, ढल जाती हूं,
कहीं भी रहूं, खुद की पहचान रखती हूं।
सरल हूं जो समझने की कोशिश करे,
कठिन भी जो आसान समझने की भूल करे।
सफर हूं, मंज़िल भी मैं,
डगर भी मैं, बढ़ते कदम भी,
कोशिश हूं, अंदाज़ भी,
रात से सुबह होने का विश्वास भी।
Very well written.
A thought provoking poem !
Glad you liked it 🙂 . Thank you